This article appeared in Navbharat Times
अजरबैजान के बाकू में हालिया संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (COP 29) में जो जलवायु वित्तपोषण समझौता हुआ, उससे इतिहास की एक बड़ी प्रसिद्ध बात याद आती है। 1942 में महात्मा गांधी ने क्रिप्स मिशन की आलोचना करते हुए इसके प्रस्ताव को डूबते हुए किसी बैंक में आया ‘एक आने का चेक’ बताया था। दोनों बातों में बस एक फर्क है- महात्मा गांधी ने इस मिशन के प्रस्ताव को एक आने का चेक कहकर रिजेक्ट कर दिया था, जबकि आलोचना के बावजूद कॉप के वित्तपोषण समझौते को भारत सहित कई देशों ने अपना लिया है। यह मंजूरी बताती है कि जलवायु संकट दूर करने में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) सहित बाकी दुनिया ने जो कोशिशें की हैं, वे बड़े लेवल पर फेल हो गई हैं।
नहीं मानी मांग
बाकू सम्मेलन में विकासशील देशों ने 2030 तक क्लाइमेट इमरजेंसी से निपटने के लिए विकसित देशों से सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर मांगे थे। प्रस्ताव में कम से कम 500 बिलियन डॉलर की सरकारी रकम शामिल थी, बाकी प्राइवेट सेक्टर से रियायती दरों पर दिए जाने की मांग थी। दो हफ्तों की विवादास्पद बातचीत के बाद अंतिम समझौते में विकसित देशों ने 2035 तक केवल 300 बिलियन डॉलर सालाना देने की बात कही। इसमें सरकारी पैसे का कोई जिक्र नहीं है, बल्कि यह लिखा है कि यह किसी भी स्रोत से आ सकता है।
धुंधला वादा
पैसे जुटाने के स्रोतों के मामले में यह समझौता बेहद धुंधला वादा करता है। इससे भी खराब बात यह है कि यह समझौता विकसित देशों को विश्व बैंक जैसे मल्टिलैटरल डिवेलपमेंट बैंकों से जलवायु संबंधी कर्ज को मनी पूल के हिस्से के रूप में शामिल करने की अनुमति देता है। यानी विकसित देशों पर 2035 तक वर्तमान 100 बिलियन डॉलर सालाना से ज्यादा धनराशि देने का कोई दायित्व नहीं है।
क्या करेंगे ट्रंप
इस समझौते का राजनीतिक भविष्य भी अनिश्चित है, क्योंकि इस बात की बहुत कम संभावना है कि बाइडन प्रशासन ने जलवायु को लेकर जो भी प्रतिबद्धताएं की हैं, उनका ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन भी सम्मान करेगा। लब्बोलुआब यह है कि बाकू समझौता बताता है कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन के समाधान से अपना हाथ झाड़ना चाहते हैं और जलवायु संकट की बढ़ती लागतों का सारा बोझ विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं।
गलत उम्मीद
वैसे, इन सब चीजों से बहुत ताज्जुब नहीं होना चाहिए। 2009 में विकसित देशों ने 2020 तक क्लाइमेट फाइनेंस में सालाना 100 अरब डॉलर देने का वादा किया था, मगर पूरा किया 2022 तक। इसमें भी लगभग 70% हिस्सा मार्केट की महंगी दरों पर दिया कर्ज था। इससे विकासशील राष्ट्रों पर कर्ज का बोझ और भी बढ़ गया। उन देशों से खरबों डॉलर की उम्मीद करना हमेशा से ही अवास्तविक था, जो अरबों डॉलर देने में ही आनाकानी कर रहे थे। अब विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर नए उपाय करने होंगे।
कमजोरों से वसूली
अब वैश्विक वित्तीय प्रणाली में मौलिक सुधारों की जरूरत है ताकि विकासशील देश जलवायु संकट से निपटने के काबिल बन सकें और सभी देशों को ठीक से सहयोग देने के लायक बनाने के लिए UNFCCC में सुधार किया जा सके। आज की वैश्विक वित्तीय प्रणाली कमजोर देशों के खिलाफ है। उदाहरण के लिए, गरीब अफ्रीकी देश कर्ज पर जिन ब्याज दरों का भुगतान करते हैं वे अमेरिका द्वारा भुगतान की जाने वाली दरों से चार गुना अधिक और धनी यूरोपीय देशों द्वारा भुगतान की जाने वाली दरों से आठ गुना अधिक हैं।
बढ़ता बोझ
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट बताती है कि जलवायु संबंधी चुनौतियों ने पहले ही 25 कमजोर विकासशील देशों को मिलने वाला कर्ज महंगा कर रखा है। इन देशों को सिर्फ सरकारी कर्ज पर 10 वर्षों में अतिरिक्त 40 बिलियन डॉलर के ब्याज का भुगतान करना होता है। इसका मतलब है कि विकासशील देश आज के जलवायु जोखिमों के चलते धनी देशों और उनके बैंकों को करोड़ों डॉलर अलग से दे रहे हैं। यह बोझ अगले दशक में दोगुना हो जाएगा। यानी इन देशों पर जलवायु संबंधी चुनौतियों का फायदा उठाया जा रहा है।
ठंडा पड़ा अजेंडा
इस अन्याय को दूर करने के लिए भारत ने अपनी G20 अध्यक्षता के दौरान कई बेहतरीन प्रस्ताव दिए थे। इसके अलावा वर्षों से कई और प्रस्ताव वैश्विक संस्थानों के अजेंडे में हैं। ये सुधार लागू होंगे, तभी विकासशील देशों की विकसित देशों पर असंगत, अन्यापूर्ण और अपर्याप्त धन की निर्भरता कम होगी और वे अपने संसाधनों का उपयोग करके राहत पा सकेंगे।
भारत का आरोप
वैसे, UNFCCC के भीतर भी सुधार जरूरी हैं। बाकू में भारत ने COP अध्यक्षता और UNFCCC सचिवालय पर वित्त समझौते को अपनाने में होने वाली प्रक्रिया में हेरफेर करने का आरोप लगाया, जो संस्थान में गहरे अविश्वास को दर्शाता है। इसके अलावा UNFCCC की कार्यवाही में फॉसिल फ्यूल बिजनेस के बढ़ते प्रभाव से इसकी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता को खतरा है। सचाई यह है कि UNFCCC अब केवल जानकारी जुटाने, उनका हिसाब करके आगे बढ़ाने का ही मंच रह गया है।
कई फ्रेमवर्क बने
अब ऐसे में किया क्या जाए? एक तो UNFCCC को छोटी-छोटी ऐसी मीटिंगों में बदला जाए, जहां समाधान निकले और जहां देश अपने वादों के लिए जवाबदेह हों। किसी सिंगल ग्लोबल फ्रेमवर्क पर निर्भर रहने की जगह अगर वाकई बदलाव लाना है तो ऊर्जा, परिवहन, कृषि, उद्योग वगैरह पर कई वैश्विक और क्षेत्रीय मंच बनाने होंगे।
ब्राजील पर दारोमदार
बाकू सम्मेलन ने इंटरनैशनल क्लाइमेट फ्रेमवर्क कमजोरियां तो दिखाई ही हैं, यह भी उजागर किया है कि इसे लेकर देशों के बीच कितना गहरा अविश्वास है। अब सारा दारोमदार COP30 के मेजबान ब्राजील पर है कि वह भरोसा बहाल करते हुए सार्थक प्रगति करे। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जो लड़ाई चल रही है, वह ठोस सुधारों के बगैर पूरी नहीं होनी है, अलबत्ता निष्क्रिय होने का उस पर जोखिम जरूर है।
Chandra Bhushan is one of India’s foremost public policy experts and the founder-CEO of International Forum for Environment, Sustainability & Technology (iFOREST).