सीधे किसानों के खाते में पहुंचे यूरिया की सबसिडी

Abstract of this article appeared in Nav Bharat Times

इस साल अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने खेती में productivity और adaptability को प्राथमिकता के रूप में पेश किया। इस पहल का उद्देश्य प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना, दालों, तिलहनों और सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाना, कृषि अनुसंधान में सुधार करना और जलवायु अनुकूल फसलों को प्राथमिकता देना है। ये लक्ष्य महत्वपूर्ण और जरूरी हैं, लेकिन इनके साथ उर्वरक क्षेत्र खासकर यूरिया को लेकर भी सुधार की जरूरत होगी।

यूरिया का घाटा: हरित क्रांति के बाद से देश अधिक फसल उपजाने के लिए यूरिया पर निर्भर रहा है। आज भी सभी उर्वरकों का 56% और सभी नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का लगभग 80% यूरिया है। लेकिन इस अत्यधिक निर्भरता का अर्थव्यवस्था और पर्यावरण पर भारी असर पड़ा है।

पर्यावरण को नुकसान: यूरिया की वजह से पर्यावरण पर तीन तरह से बुरा असर पड़ता है- नाइट्रोजन प्रदूषण, ओजोन परत को नुकसान और जलवायु परिवर्तन। भारत में यूरिया का अत्यधिक उपयोग अस्थिर स्तर तक पहुंच गया है। अपने यहां नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NUE) केवल 35% है। इसका मतलब कि यूरिया में मौजूद नाइट्रोजन में से केवल 35% का उपयोग फसलों द्वारा हो पाता है, बाकी का दो तिहाई पर्यावरण में घुलमिल जाता है जिससे जल और वायु प्रदूषण होता है। अमेरिका में NUE 50% से अधिक है, जबकि कुछ यूरोपीय देशों में तो यह लगभग 80% है।

इकॉनमी को चपत: भारत के कई राज्यों, विशेषकर पंजाब, हरियाणा और यूपी में सतही जल और भूजल का नाइट्रेट प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर है। नाइट्रेट प्रदूषण कैंसर और थायराइड से जुड़ी समस्याओं समेत विभिन्न बीमारियों का कारण बनता है। स्टडी बताती हैं कि भारत में यूरिया के कारण जल प्रदूषण से होने वाला नुकसान हर साल लगभग 30 बिलियन डॉलर है। यह आंकड़ा यूरिया उद्योग के कुल कारोबार से भी ज्यादा है।

ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण: यूरिया के उत्पादन और उपयोग से ग्रीनहाउस गैस निकलती हैं। नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) का उत्सर्जन होता है। ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में नाइट्रस ऑक्साइड 300 गुना अधिक खतरनाक है। इससे धरती के चारों ओर मौजूद ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाता है। वर्तमान में भारत से होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में यूरिया का हिस्सा 4.3% और कृषि GHG का 21.7% है।

सबसिडी का बोझ: यूरिया का बोझ अर्थव्यवस्था पर भी भारी पड़ रहा है। यूरिया सबसिडी 1980-81 में 500 करोड़ रुपये से कम थी, जो 2022-23 में 168,692 करोड़ रुपये हो गई है। आज यूरिया सबसिडी उत्पादन लागत का लगभग 90% है। 1980 के दशक में यह उत्पादन लागत का 20-40% थी। समस्या है कि यह उत्पादन आयातित प्राकृतिक गैस (NG) पर आधारित है। 2022-23 में 84% यूरिया आयातित NG से उत्पादित हुआ और कुल खपत का लगभग 21% आयातित यूरिया था। तो, देश में उपभोग होने वाले लगभग 90% यूरिया या तो आयातित NG या आयातित यूरिया पर आधारित था।

खपत पर लगाम: आयातित नैचरल गैस पर निर्भरता को कम करने के लिए यूरिया को कम कार्बन उत्सर्जन वाली प्रक्रिया से बनाना होगी। अच्छी बात है कि हमारे पास ऐसी टेक्नॉलजी मौजूद है। अपने सहयोगियों के साथ मैंने एक विस्तृत मॉडलिंग अध्ययन में पाया कि मौजूदा स्तर से खाद्य उत्पादन कम किए बिना 2050 तक यूरिया की खपत को आधा करना संभव है। ऐसा प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देकर, NUE को बढ़ाकर और नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों में यूरिया के अनुपात को कम करके किया जा सकता है।

ग्रीन यूरिया: सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मौजूदा प्राकृतिक गैस पर आधारित यूरिया निर्माण संयंत्रों को अगले दो दशकों में Green Hydrogen और नवीकरणीय ऊर्जा में ट्रांसफर किया जा सकता है। ग्रीन हाइड्रोजन से बनने वाली ग्रीन यूरिया सस्ती भी पड़ेगी। इसकी औसत लागत लगभग 39,771 रुपये प्रति टन होगी, जबकि प्राकृतिक गैस से बनने वाली ग्रे यूरिया की लागत करीब 45,213 रुपये प्रति टन है।

मिशन पर फोकस: सरकार को नैशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के साथ एकीकृत ग्रीन यूरिया मिशन लॉन्च करना चाहिए, ताकि 2050 तक यूरिया निर्माण क्षेत्र को ग्रीन यूरिया में बदला जा सके। मिशन का लक्ष्य होना चाहिए कि 2050 तक गैर रासायनिक खेती को 30% तक बढ़ाना, NUE को 30% तक सुधारना और नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों में यूरिया के अनुपात को 30% तक कम करना।

ट्रिलियन में फायदा: यदि ग्रीन यूरिया मिशन अपनाया जाता है, तो आयात समाप्त हो जाएगा, सबसिडी में 65% की कमी होगी और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 64% की गिरावट आएगी। जल और वायु प्रदूषण भी काफी हद तक कम होगा। भूमि का क्षरण उलट जाएगा। इन फायदों की कीमत अगले 25 बरसों में लगभग एक ट्रिलियन डॉलर होगी।


सेक्टर की परेशानी:
 मिशन की सफलता यूरिया क्षेत्र पर सरकार के नियंत्रण की सीमा पर निर्भर करेगी। फिलहाल तो यह सेक्टर बहुत ज्यादा रेगुलेटेड है। इससे मुनाफा कम होता है और नई टेक्नॉलजी अपनाने में दिक्कत होती है। यूरिया प्लांट्स की औसत आयु 30 बरस है। 45% यूनिट 40 वर्ष से अधिक पुरानी हैं। इनको renovation और modernization के जरिये चलाया जा रहा है, लेकिन यह बहुत महंगा तरीका है।

सिफारिश पर अमल: सरकार को अपना नियंत्रण खत्म करके बाजार को आपस में प्रतिस्पर्धा करने देना चाहिए। 2014 में स्थापित शांता कुमार समिति ने सिफारिश की थी कि किसानों को सीधे नकद सबसिडी दे दी जाए ताकि वे अपनी जरूरत के हिसाब से उर्वरक खरीद सकें। इससे यूरिया सेक्टर में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, कीमतें कम होंगी और नई तकनीक आएगी।

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Chandra Bhushan is one of India’s foremost public policy experts and the founder-CEO of International Forum for Environment, Sustainability & Technology (iFOREST).

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