हवा साफ रखने के ये हैं 8 महामंत्र, एक आपके के लिए भी; वायु प्रदूषण का इलाज समझ लीजिए

Steps for Good AQI: दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता सुधारी जा सकती है, बशर्ते कुछ कदम उठाए जाएं। इनमें स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन, सर्दियों में हीटिंग के लिए स्वच्छ ईंधन, पराली जलाने को रोकने, उद्योग ऊर्जा संक्रमण, इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग, हरा पट्टी विकास और नगरपालिका को सशक्त बनाना शामिल हैं।

जाने-माने पर्यावरणविद् चंद्र भूषण ने दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण के गंभीर मुद्दे पर चिंता तो जाहिर की, लेकिन अगले पांच वर्षों में वायु गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार के लिए आठ सूत्रीय रोडमैप भी दिया है। हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) के लिए लिखे लेख में उन्होंने ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रैप) जैसे उपायों के पीछे की सोच पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा है कि प्रदूषण के खतरनाक स्तर तक पहुंच जाने पर ऐसे उपाय करके लीपापोती होती है, कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता।

उन्होंने कहा कि अपशिष्ट प्रबंधन, खुले में जलाने पर रोक, प्रदूषण कानूनों को लागू करना, यातायात का प्रबंधन और सड़कों और निर्माण स्थलों पर धूल को दबाने जैसी क्रियाएं नियमित अभ्यास होनी चाहिए। वे वायु प्रदूषण के मूल कारणों बायोमास और कोयले का व्यापक उपयोग, भूमि क्षरण से उड़ती धूल आदि पर प्रकाश डालते हुए इनसे निपटने के लिए एक क्षेत्रीय कार्य योजना की आवश्यकता पर जोर देते हैं। उन्होंने ये आठ बेहद प्रभावी रणनीतियां बताई हैं जिन्हें अपनाकर वायु प्रदूषण के खतरे से बचा सकता है…

1. पीएम उज्ज्वला 3.0 लाए मोदी सरकार

लेखक अपनी पिछली स्टडी का हवाला देते हुए कहते हैं कि पिछले एक दशक में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के कारण वायु प्रदूषण में जितनी कमी आई, उससे ज्यादा किसी और उपाय से नहीं आई। दिल्ली-एनसीआर में खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच का विस्तार करने से पीएम2.5 के स्तर को 25% तक कम किया जा सकता है। यह उद्देश्य हासिल करने के लिए पीएम उज्ज्वला योजना का 3.0 की जरूरत है जिसमें घर-घर एलपीजी या बिजली की पहुंच सुनिश्चित की जाए।

रिसर्च से पता चलता है कि विशेष रूप से कम आय वाले परिवारों में एलपीजी का उपयोग सुनिश्चित करने के लिए 75% सब्सिडी की जरूरत है। इस पर सरकार को सालाना लगभग 5 से 6 हजार रुपये प्रति परिवार खर्च की आवश्यकता होती है। दिल्ली-एनसीआर में इस पहल पर प्रति वर्ष लगभग 6 से 7 हजार करोड़ खर्च होंगे। इससे कई गुना तो जहरीली हवा से हुईं गंभीर बीमारियों के इलाज पर खर्च हो जाता है। सरकार ने ऐसा किया तो यह बहुत ही गरीब और महिला समर्थक पहल होगी, खासकर यह देखते हुए कि लगभग 6 लाख भारतीय हर साल घर के अंदर के वायु प्रदूषण के कारण बेवक्त मर जाते हैं जिनमें महिलाओं की संख्या बहुत ज्यादा होती है।

2. स्वच्छ ताप ईंधन की जरूरत

पूरे भारत के 90% से अधिक घरों में सर्दियों के दौरान गर्मी प्राप्त करने के लिए बायोमास और ठोस ईंधन का उपयोग होता, जो दिसंबर और जनवरी में प्रदूषण की स्थिति में योगदान करते हैं। चीन की महत्वपूर्ण वायु गुणवत्ता पहलों में से एक राष्ट्रीय स्वच्छ ताप ईंधन नीति थी। इसी तरह की दीर्घकालिक योजना विकसित करना आवश्यक है। इसे देखते हुए फिलहाल दिल्ली सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि सर्दियों में हीटिंग के लिए केवल बिजली का उपयोग किया जाए और खुले में जलाने पर सख्त प्रतिबंध लागू किया जाए। इससे दिल्ली की वायु गुणवत्ता में तेजी से सुधार होगा।

3. पराली जलाने की रोक के लिए प्रोत्साहन पैकेज और दंड की व्यवस्था

पराली जलाने पर अंकुश लगाने से सर्दियों के महीनों में गंभीर और खतरनाक वायु प्रदूषण के दिनों की घटनाओं में कमी आएगी। इसके लिए छोटी और लंबी दोनों तरह की रणनीतियों की जरूरत है। दीर्घावधि में, पंजाब, हरियाणा और यूपी के कुछ हिस्सों में कृषि को गहन चावल-गेहूं की खेती से विविध फसल प्रणाली में बदलना चाहिए। अल्पावधि में, प्रौद्योगिकी और प्रोत्साहन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

सबसे सरल तकनीकी समाधान कंबाइन हार्वेस्टर को संशोधित करना या अनिवार्य करना है जो मैन्युअल कटाई की तरह जमीन के करीब कटते हैं, जिससे न्यूनतम पराली निकलती है। हरियाणा सरकार पराली जलाने से रोकने को लिए किसानों को प्रति एकड़ ₹1,000 की प्रोत्साहन राशि देती है। फिर भी किसान पराली जलाए तो उस पर जुर्माना लगाने के साथ-साथ सरकारी योजनाओं से वंचित करने का दंड दिया जाए। इस योजना पर सालाना लगभग ₹2,500 करोड़ खर्च होंगे।

4. उद्योगों में ऊर्जा संक्रमण की जरूरत

उद्योग और बिजली संयंत्र दिल्ली-एनसीआर में वार्षिक PM2.5 उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा हैं। इन्हें कम करने के लिए टेक्नॉलजी में अपग्रेडेशन और कानूनों का कड़ाई से प्रवर्तन की आवश्यकता होगी। एमएसएमई को स्वच्छ ईंधन स्रोतों, विशेष रूप से इलेक्ट्रिक बॉयलर और भट्टियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने वाली योजना उत्सर्जन को काफी हद तक कम कर सकती है। बड़े उद्योगों के लिए कड़े प्रदूषण मानदंड और नियमों को कड़ाई से लागू करना आवश्यक हैं। पुराने ताप विद्युत संयंत्रों (थर्मल पावर प्लांट) को बंद करना और 2015 के मानकों को लागू करना भी महत्वपूर्ण होगा जो अब तक नहीं हो सका है।

5. इलेक्ट्रिक वाहनों पर बढ़े फोकस

इलेक्ट्रॉनिक वीइकल्स के उपयोग को बढ़ाना महत्वपूर्ण है। प्रारंभ में दोपहिया और तिपहिया वाहनों के साथ-साथ बसों के संक्रमण पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए क्योंकि वे पहले से ही आर्थिक रूप से व्यवहार्य हैं। 2030 तक नए दोपहिया और तिपहिया वाहनों की बिक्री के 100% विद्युतीकरण और 2025 तक दिल्ली-एनसीआर में सभी नई बसों को इलेक्ट्रिक में बदलने का लक्ष्य, उत्सर्जन को काफी हद तक कम करेगा। इसके अतिरिक्त, कारों और अन्य वाहनों के लिए 30-50% विद्युतीकरण लक्ष्य निर्धारित करने से स्वच्छ परिवहन में परिवर्तन में तेजी लाने में मदद मिलेगी।

6. ग्रीन बेल्ट का विकास जरूरी

दिल्ली और आसपास के इलाकों से धूल प्रदूषण, थार रेगिस्तान से मौसमी धूल के साथ वायु गुणवत्ता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। दिल्ली के चारों ओर एक ग्रीन बेल्ट बाहर से आने वाली धूल के खिलाफ एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में काम करेगा। इसके अतिरिक्त, स्थानीय धूल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए शहर के भीतर हरित आवरण बढ़ाना जरूरी है। इस लिहाज से सड़क किनारे और खुले स्थान पर हरियाली की व्यवस्था करने का उपाय बहुत प्रभावी होगा।

7. नगर पालिकाओं का तय हो दायित्व

सड़कों और निर्माण से धूल, खुले में जलाना, यातायात की भीड़, और अपर्याप्त अपशिष्ट प्रबंधन आदि प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों को निपटाने की प्राथमिक जिम्मेदारी नगर पालिकाओं की होती है। लेकिन पूरे साल इनसे निपटने को लेकर प्रभावी कदम नहीं उठाने के लिए नगर पालिकाओं को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। साफ हवा सुनिश्चित करने के ठोस उपाय करने की दिशा में नगरपालिका के प्रयासों को बल देने के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम को मजबूत करना महत्वपूर्ण होगा।

8. नागरिकों की भागीदारी के बिना असंभव

अंत में, लेखक इस बात पर जोर देते हैं कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए केवल सरकारी कार्रवाई ही काफी नहीं है। नागरिकों को भी इस लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लेने की आवश्यकता है। वे कार पूलिंग, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने, ऊर्जा बचाने और अपने आसपास के लोगों के बीच जागरूकता फैलाने जैसे कदम उठाकर ऐसा कर सकते हैं।

ये उपाय लागू किए जाएं तो अगले पांच वर्षों में वायु प्रदूषण को 50-60% तक कम किया जा सकता है। हालांकि, यह आसान नहीं होगा। ऐसा करने के लिए हमें लाखों घरों, किसानों और वाहन मालिकों और सैकड़ों हजारों उद्योगों के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। ऐसी कोई जादूई छड़ी नहीं है जो चुटकी बजाते ही हवा साफ कर दे। सभी हितधारकों को शामिल करते हुए केवल सिस्टमैटिक चेंज ही दिल्ली के निवासियों को आसानी से सांस लेने देंगे।

सीधे किसानों के खाते में पहुंचे यूरिया की सबसिडी

इस साल अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने खेती में productivity और adaptability को प्राथमिकता के रूप में पेश किया। इस पहल का उद्देश्य प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना, दालों, तिलहनों और सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाना, कृषि अनुसंधान में सुधार करना और जलवायु अनुकूल फसलों को प्राथमिकता देना है। ये लक्ष्य महत्वपूर्ण और जरूरी हैं, लेकिन इनके साथ उर्वरक क्षेत्र खासकर यूरिया को लेकर भी सुधार की जरूरत होगी।

यूरिया का घाटा: हरित क्रांति के बाद से देश अधिक फसल उपजाने के लिए यूरिया पर निर्भर रहा है। आज भी सभी उर्वरकों का 56% और सभी नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का लगभग 80% यूरिया है। लेकिन इस अत्यधिक निर्भरता का अर्थव्यवस्था और पर्यावरण पर भारी असर पड़ा है।

पर्यावरण को नुकसान: यूरिया की वजह से पर्यावरण पर तीन तरह से बुरा असर पड़ता है- नाइट्रोजन प्रदूषण, ओजोन परत को नुकसान और जलवायु परिवर्तन। भारत में यूरिया का अत्यधिक उपयोग अस्थिर स्तर तक पहुंच गया है। अपने यहां नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NUE) केवल 35% है। इसका मतलब कि यूरिया में मौजूद नाइट्रोजन में से केवल 35% का उपयोग फसलों द्वारा हो पाता है, बाकी का दो तिहाई पर्यावरण में घुलमिल जाता है जिससे जल और वायु प्रदूषण होता है। अमेरिका में NUE 50% से अधिक है, जबकि कुछ यूरोपीय देशों में तो यह लगभग 80% है।

इकॉनमी को चपत: भारत के कई राज्यों, विशेषकर पंजाब, हरियाणा और यूपी में सतही जल और भूजल का नाइट्रेट प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर है। नाइट्रेट प्रदूषण कैंसर और थायराइड से जुड़ी समस्याओं समेत विभिन्न बीमारियों का कारण बनता है। स्टडी बताती हैं कि भारत में यूरिया के कारण जल प्रदूषण से होने वाला नुकसान हर साल लगभग 30 बिलियन डॉलर है। यह आंकड़ा यूरिया उद्योग के कुल कारोबार से भी ज्यादा है।

ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण: यूरिया के उत्पादन और उपयोग से ग्रीनहाउस गैस निकलती हैं। नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) का उत्सर्जन होता है। ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में नाइट्रस ऑक्साइड 300 गुना अधिक खतरनाक है। इससे धरती के चारों ओर मौजूद ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाता है। वर्तमान में भारत से होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में यूरिया का हिस्सा 4.3% और कृषि GHG का 21.7% है।

सबसिडी का बोझ: यूरिया का बोझ अर्थव्यवस्था पर भी भारी पड़ रहा है। यूरिया सबसिडी 1980-81 में 500 करोड़ रुपये से कम थी, जो 2022-23 में 168,692 करोड़ रुपये हो गई है। आज यूरिया सबसिडी उत्पादन लागत का लगभग 90% है। 1980 के दशक में यह उत्पादन लागत का 20-40% थी। समस्या है कि यह उत्पादन आयातित प्राकृतिक गैस (NG) पर आधारित है। 2022-23 में 84% यूरिया आयातित NG से उत्पादित हुआ और कुल खपत का लगभग 21% आयातित यूरिया था। तो, देश में उपभोग होने वाले लगभग 90% यूरिया या तो आयातित NG या आयातित यूरिया पर आधारित था।

खपत पर लगाम: आयातित नैचरल गैस पर निर्भरता को कम करने के लिए यूरिया को कम कार्बन उत्सर्जन वाली प्रक्रिया से बनाना होगी। अच्छी बात है कि हमारे पास ऐसी टेक्नॉलजी मौजूद है। अपने सहयोगियों के साथ मैंने एक विस्तृत मॉडलिंग अध्ययन में पाया कि मौजूदा स्तर से खाद्य उत्पादन कम किए बिना 2050 तक यूरिया की खपत को आधा करना संभव है। ऐसा प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देकर, NUE को बढ़ाकर और नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों में यूरिया के अनुपात को कम करके किया जा सकता है।

ग्रीन यूरिया: सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मौजूदा प्राकृतिक गैस पर आधारित यूरिया निर्माण संयंत्रों को अगले दो दशकों में Green Hydrogen और नवीकरणीय ऊर्जा में ट्रांसफर किया जा सकता है। ग्रीन हाइड्रोजन से बनने वाली ग्रीन यूरिया सस्ती भी पड़ेगी। इसकी औसत लागत लगभग 39,771 रुपये प्रति टन होगी, जबकि प्राकृतिक गैस से बनने वाली ग्रे यूरिया की लागत करीब 45,213 रुपये प्रति टन है।

मिशन पर फोकस: सरकार को नैशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के साथ एकीकृत ग्रीन यूरिया मिशन लॉन्च करना चाहिए, ताकि 2050 तक यूरिया निर्माण क्षेत्र को ग्रीन यूरिया में बदला जा सके। मिशन का लक्ष्य होना चाहिए कि 2050 तक गैर रासायनिक खेती को 30% तक बढ़ाना, NUE को 30% तक सुधारना और नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों में यूरिया के अनुपात को 30% तक कम करना।

ट्रिलियन में फायदा: यदि ग्रीन यूरिया मिशन अपनाया जाता है, तो आयात समाप्त हो जाएगा, सबसिडी में 65% की कमी होगी और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 64% की गिरावट आएगी। जल और वायु प्रदूषण भी काफी हद तक कम होगा। भूमि का क्षरण उलट जाएगा। इन फायदों की कीमत अगले 25 बरसों में लगभग एक ट्रिलियन डॉलर होगी।


सेक्टर की परेशानी:
 मिशन की सफलता यूरिया क्षेत्र पर सरकार के नियंत्रण की सीमा पर निर्भर करेगी। फिलहाल तो यह सेक्टर बहुत ज्यादा रेगुलेटेड है। इससे मुनाफा कम होता है और नई टेक्नॉलजी अपनाने में दिक्कत होती है। यूरिया प्लांट्स की औसत आयु 30 बरस है। 45% यूनिट 40 वर्ष से अधिक पुरानी हैं। इनको renovation और modernization के जरिये चलाया जा रहा है, लेकिन यह बहुत महंगा तरीका है।

सिफारिश पर अमल: सरकार को अपना नियंत्रण खत्म करके बाजार को आपस में प्रतिस्पर्धा करने देना चाहिए। 2014 में स्थापित शांता कुमार समिति ने सिफारिश की थी कि किसानों को सीधे नकद सबसिडी दे दी जाए ताकि वे अपनी जरूरत के हिसाब से उर्वरक खरीद सकें। इससे यूरिया सेक्टर में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, कीमतें कम होंगी और नई तकनीक आएगी।

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