क्या चारधाम यात्रा में भीड़ घटाई जानी चाहिए

पिछले कुछ दिनों में सोशल मीडिया पर और खबरों में केदारनाथ में फैले प्लास्टिक प्रदूषण की काफी चर्चा हुई। जो तस्वीरें आईं, उनसे लगता है कि केदारनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं ने काफी मात्रा में प्लास्टिक की बोतलें और चीजें वहां फेंकीं। सोनप्रयाग में कार पार्किंग की एक फोटो वायरल हुई, जहां केदारनाथ और बद्रीनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं की हजारों गाड़ियां लगी थीं। ऐसी पार्किंग आपको दिल्ली-मुंबई में भी जल्दी देखने को नहीं मिलेगी। खबरों में सोनप्रयाग का ट्रैफिक जाम भी है, महज एक किलोमीटर चलने में लोगों को घंटों लग रहे हैं। इसके चलते केदारनाथ-बद्रीनाथ के सबसे नजदीक के शहर में वायु प्रदूषण भी बढ़ा हुआ है।

नुकसान पहुंचाती भीड़
चारधाम यात्रा की यह स्थिति बहुत चिंताजनक है। पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का मानना है कि धार्मिक स्थलों पर जितनी तेजी से श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ रही है, वह अनसस्टेनेबल है। तो आज यह चर्चा जरूरी है कि ऐसी जगहों पर बने धार्मिक स्थलों पर कितने लोग जा सकते हैं। कैसे लोगों के जाने को कंट्रोल किया जाए, और वह संख्या क्या होगी? आज केदारनाथ में रोजाना कोई 12 से 13 हजार श्रद्धालु जाते हैं। इस संख्या को हम कितना कम कर सकते हैं?

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले इसके बैकग्राउंड पर एक नजर डाल लेना बेहतर होगा। जो बहुत ही सेंसिटिव जगहें हैं, जैसे कि अमरनाथ, केदारनाथ या फिर गंगोत्री-यमुनोत्री, उनका पर्यावरण बदल रहा है। सिर्फ अमरनाथ को लें तो पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और श्रद्धालुओं की भीड़ के कारण मंदिर के आसपास के ग्लेशियर काफी प्रभावित हो रहे हैं। इसके चलते अमरनाथ गुफा में मौजूद प्रतिष्ठित शिवलिंग का आकार लगातार कम होता जा रहा है। कई बार तो यात्रा समाप्त होने के पहले ही वह पूरी तरह से पिघल जाता है। ऐसा पिछले दस सालों से देखा जा रहा है। हालात ऐसे ही बने रहते हैं तो कुछ दशकों में ऐसा होगा कि श्रद्धालु वहां जाएंगे तो जरूर, लेकिन प्रार्थना करने के लिए वहां शिवलिंग नहीं होगा।

यह बहुत ही अच्छा उदाहरण है यह बताने के लिए कि हमारे धार्मिक स्थलों पर श्रद्धालुओं की संख्या और ग्लोबल वॉर्मिंग का कैसा प्रभाव पड़ रहा है। ग्लोबल वॉर्मिंग तो ग्लोबल इश्यू है, पूरी दुनिया को इस पर काम करने की जरूरत है। लेकिन हम अपने धार्मिक स्थलों पर पर्यावरण और श्रद्धालुओं की संख्या नियंत्रित करके उन्हें बचा सकते हैं। वहां जिस तरह से कंक्रीट की इमारतें बना रहे हैं, यह एक बहुत ही सेंसिटिव इको सिस्टम से खिलवाड़ करने वाली बात है। सोनप्रयाग वाली पार्किंग मंदाकिनी नदी के तट पर बनी है। आपको याद होगा कि केदारनाथ में 2013 में किस तरह से भीषण बाढ़ आई थी, जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई थी। कल को अगर मंदाकिनी में बाढ़ आती है तो वहां जितनी कार पार्किंग है, सब ध्वस्त हो जाएंगी, यह निश्चित है।

श्रद्धालुओं की संख्या की सीमा जानने के लिए कैरींग कपैसिटी स्टडी होती है। जैसे हर इंसान की एक कैरींग कपैसिटी होती है, वैसे ही हर जगह की भी होती है।

यह क्षमता निर्भर करती है इस बात पर कि उस जगह में पानी कितना है, हवा कैसी है, तापमान कैसा है, उस चैनल में जंगल कैसे हैं, जमीन कैसी है। कश्मीर यूनिवर्सिटी के भूगोल विभाग ने अमरनाथ की पूरी लेंटर घाटी की कैरींग कपैसिटी की स्टडी की। उसमें उन्होंने देखा था कि पानी कितना है, जो इंसान जाएगा, उसके मल-मूत्र का डिस्पोजल कैसे हो सकता है। कितने प्लास्टिक और कूड़े का मैनेजमेंट हो सकता है। उन्होंने पाया कि रोजाना चार से साढ़े चार हजार यात्री अमरनाथ जा सकते हैं। इस साल की अमरनाथ यात्रा के लिए बीस हजार से अधिक लोगों ने रजिस्ट्रेशन करा लिया है। अक्सर यह संख्या लाखों में पहुंचती है। अब अगर हमें चारधाम बचाने हैं तो वहां पर यात्रियों की संख्या तुरंत एक तिहाई से भी कम करनी होगी।

कोई सवाल कर सकता है कि ऐसे तो आप लोगों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं। दूसरा सवाल यह होगा कि अगर संख्या कम करेंगे तो अमीर जाएंगे और गरीब नहीं जा पाएगा। लेकिन इसके लिए उपाय हैं। पहली बात यह है कि चार धाम में आज भी संख्या नियंत्रित की जाती है। वहां के लिए आपको रजिस्ट्रेशन कराना होता है। अमरनाथ में दस से बारह हजार, केदारनाथ-बद्रीनाथ में कोई सोलह हजार तो यमुनोत्री और हेमकुंड साहिब में कुल पांच हजार लोग रोजाना जा सकते हैं। सरकार आज भी नंबर कंट्रोल करती है। पर बात यह है कि जितने लोगों की आज अनुमति है, वह संख्या अनसस्टेनेबल है। इस संख्या से भी यहां का पर्यावरण बहुत तेजी से खराब होगा।

दूसरा सवाल अमीर-गरीब का है तो गरीबों के लिए हम यह कर सकते हैं कि वहां का आधा कोटा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए हो, और बाकी का आधा पैसे वालों के लिए हो। अमीर लोग अगर अमरनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री या गंगोत्री के दर्शन करना चाहते हैं, तो ज्यादा पैसा दें। उस पैसे से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को वहां पर सब्सिडी दी जा सकती है। यह कोई नई पॉलिसी नहीं है। यह हमारी इकॉनमिक पॉलिसी है। आज भी अमीर ज्यादा टैक्स देता है, गरीब कम देता है। आज के दिन भी गरीब को पैसे बैंक में ट्रांसफर किए जाते हैं चाहे वह किसी तरह की सब्सिडी का पैसा हो या किसी अन्य कल्याणकारी योजना का।

भूटान से सीखें
दुनिया भर के देशों की पर्यटन पॉलिसी में इस तरह की चीजें आ रही हैं। हमारा पड़ोसी देश भूटान इसका अच्छा उदाहरण है। भूटान में अंदर जाने के लिए पंद्रह से बीस हजार रुपये सस्टेनेबल डिवेलपमेंट के लिए देने होते हैं। भूटान ऐसे अपना पर्यावरण बचा रहा है। हमें भूटान से सीखने की जरूरत है, हम उससे बेहतर कर सकते हैं। हम भी संख्या कंट्रोल करें, सस्टेनेबल डिवेलपमेंट के लिए फीस लें, और वहां का पर्यावरण बचाएं, तभी चारधाम सही मायने में चारधाम रहेगा। नहीं तो बस कुछ ही सालों की बात है, सब खराब हो जाएगा।

हीटवेव और बाढ़ झेलने को तैयार रहें शहर

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) सन 1988 में इसलिए बना, ताकि वह समय-समय पर जलवायु परिवर्तन के बारे में दुनिया के शीर्ष नेताओं को साइंटिफिक नजरिया दे सके। पिछले 34 सालों में आईपीसीसी ने पांच रिपोर्ट जारी की हैं और अब वह छठी रिपोर्ट पब्लिश कर रहा है। इस रिपोर्ट का दूसरा हिस्सा कुछ दिन पहले आया है, जिसकी इन दिनों काफी चर्चा हो रही है। चर्चा इसलिए क्योंकि इसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और अनुकूलन पर सबसे व्यापक रिपोर्ट माना जा रहा है। इस लेख में हम इस रिपोर्ट से निकली दस जरूरी चीजों पर चर्चा करेंगे।

यह कैसा विकास
आईपीसीसी की छठी रिपोर्ट का पहला निष्कर्ष यह है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पिछली पांच रिपोर्टों में बताई चेतावनियों से कहीं ज्यादा है और संकट के अनुकूल हो पाना हमारी सोच से भी अधिक कठिन होगा। दूसरी खोज यह है कि जलवायु परिवर्तन अब प्रकृति का विनाश कर रहा है। जमीन या समुद्र में जो जीव-जंतु या पेड़-पौधे हैं, उन्हें इतना ज्यादा नुकसान हो चुका है कि कहीं-कहीं तो इसकी भरपाई ही नहीं हो सकती। सैकड़ों विलुप्त जीव-जंतु अब कभी वापस नहीं आएंगे। रिपोर्ट कहती है कि अगर तापमान 1.5 डिग्री से ज्यादा बढ़ा तो ऐसी चीजें होंगी, जिन्हें हम सैकड़ों सालों में भी ठीक नहीं कर पाएंगे। समुद्र में मूंगों की चट्टानें खराब हो जाएंगी। सुंदरवन जैसी जगहें बर्बाद हो जाएंगी। हमारे नॉर्थ-ईस्ट और वेस्टर्न घाट पर जो वर्षा वन हैं, वे तबाह हो जाएंगे। हिमालय के ग्लेशियर और इको सिस्टम ऐसे खराब होंगे कि फिर कभी रिकवर नहीं कर पाएंगे।

तीसरा निष्कर्ष यह है कि जलवायु परिवर्तन अब इंसानों की सेहत, शांति और संपदा पर प्रभाव डाल रहा है। इसने दुनिया भर में लोगों के शारीरिक और कुछ क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। जल जनित और वेक्टर जनित रोगों की घटनाओं में वृद्धि हुई है। हृदय और सांस की बीमारियां भी बढ़ गई हैं। अत्यधिक गर्मी, बाढ़ और अन्य चरम मौसम की घटनाओं के कारण दुनिया भर में लोगों की मौतें हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन गरीब को और गरीब बना रहा है। घर के बाहर मेहनत-मजदूरी करना गरीब की जीविका है। भीषण गर्मी ने उनके काम के घंटे घटा दिए हैं, जो आगे और भी कम होंगे और उसी हिसाब से उनकी आय घटती जाएगी। इसी तरह, जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा आर्थिक नुकसान कृषि, वानिकी, मत्स्य पालन, ऊर्जा और पर्यटन में होगा, जो गरीबों को सबसे अधिक रोजगार देता है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन सभी क्षेत्रों में विस्थापन को बढ़ावा देकर मानवीय संकट को बढ़ा रहा है। धीरे-धीरे ऐसे सबूत सामने आ रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग पानी और उपजाऊ भूमि जैसे संसाधनों की कमी पैदा करके संघर्षों में इजाफा कर सकती है।

चौथा निष्कर्ष है कि इससे भारत जैसे देश सबसे बुरी तरह प्रभावित होंगे। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हर जगह समान नहीं होगा। सबसे ज्यादा प्रभाव वहां होगा, जहां गरीबी और शासन की चुनौतियां हैं, छोटे किसान ज्यादा हैं, लोगों की आवश्यक सेवाओं और संसाधनों तक पहुंच कम है। रिपोर्ट कहती है कि विश्व के 330 से 360 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं। भारत को लेकर अलग से इसमें कोई आंकड़ा नहीं दिया गया है, लेकिन साफ दिख रहा है कि भारत सबसे बुरी तरह से प्रभावित है।

रिपोर्ट का पांचवां बिंदु यह है कि अफ्रीका और एशिया में तेजी से विकसित होते शहरों में हीटवेव और बाढ़ की समस्या बढ़ेगी, पीने के पानी की कमी होगी। छठी खोज यह है कि अब हम वहां पहुंच रहे हैं, जहां से वापसी मुश्किल है। अब जलवायु परिवर्तन इतना जटिल हो चुका है कि उसे सही कर पाना कठिन होता जा रहा है। जलवायु से जुड़े कई खतरे एक साथ आएंगे। कई जलवायु और गैर-जलवायु जोखिम आपस में क्रिया-प्रतिक्रिया करेंगे, जिससे असहनीय स्थिति पैदा होगी। उदाहरण के लिए, भारत के विभिन्न हिस्सों में बाढ़, सूखा, जंगल की आग और गर्मी की लहरें जैसी स्थिति एक साथ आ सकती हैं, जो जटिल समस्याएं पैदा करेंगी।

जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रदर्शन करते छात्र (फाइल फोटो)

सातवां यह कि ग्रीन हाउस गैसों को कम करना ही बेहतर रास्ता है। क्योंकि तापमान अगर डेढ़ डिग्री तक बढ़ा, तो फिर जो कुछ भी सामने आएगा, उसे हम मैनेज नहीं कर पाएंगे। आठवां निष्कर्ष अच्छी विकास प्रथाओं के बारे में है। रिपोर्ट का कहना है कि मुश्किल इसलिए भी आ रही है क्योंकि हमारी नीतियां और उनका क्रियान्वयन टिकाऊ नहीं है। जितना चाहते हैं, जमीन घेर लेते हैं, पानी या कोयला निकाल लेते हैं, जंगल काट डालते हैं। प्रदूषण अलग बढ़ा रहे हैं। इसकी जगह हमें अच्छी विकास प्रथाएं लागू करनी होंगी। जैसे कि शहर में बाढ़ कम करनी है तो शहर के ताल-तलैया और नदियां पुनर्जीवित करिए। शहर में ऐसी जगहें हों, जहां कोई निर्माण ना हो। गांवों में भी सूखा कम करना है तो वर्षा जल संचयन और मिट्टी की नमी सहेजनी होगी।

नौंवी और इस रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब आप प्रकृति को अकेला छोड़ दीजिए, इसी में आपकी भलाई है। अभी विश्व में हम लगभग 15 फीसदी जमीन, 21 फीसदी मीठे पानी के स्रोत और 8 फीसदी समुद्र संरक्षण करते हैं। रिपोर्ट का कहना है कि बचने के लिए अब हमें 30 से 50 फीसदी जमीन, फ्रेश वॉटर और समुद्र को छोड़ देना पड़ेगा। एक समय भारत में भी नो गो एरिया की बात हो रही थी कि वहां इंसान नहीं घुसेगा। अब ऐसे ही इलाके और बढ़ाने होंगे।

सब जुड़ेंगे, तभी बचेंगे
दसवां और आखिरी बिंदु यह है बिना राजनीतिक इच्छाशक्ति के हम इस समस्या को हल नहीं कर सकते। अब किंतु-परंतु या सवाल का समय नहीं है। नए कानून बनाने पड़ेंगे, नई नीतियां भी, ताकि सब मिलजुल कर काम कर सकें। कंपनियों और सिविल सोसायटी का बहुत बड़ा रोल होगा, क्योंकि अब ये सिर्फ सरकारों के बस की बात नहीं। सब लोग जुड़ेंगे, तभी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कुछ कम हो सकते हैं।

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